मंगलवार, 25 अगस्त 2015

विदुर नीति

         महात्मा विदुर धर्म के अवतार माने जाते हैं। माण्डव ऋषि के श्राप से उन्हें शूद्रयोनि में जन्म लेना पड़ा। ये महाराज विचित्रवीर्य की दासी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार ये पाण्डु और धृतराष्ट्र के एक तरह से सगे भाई थे। विदुर बड़े ही बुद्धिमान, नीतिज्ञ, धर्मज्ञ , विद्वान , सदाचारी एवं भगवद्भक्त थे।
Mahatma Vidur महात्मा विदुर“विदुर नीति” महाभारत का एक प्रमुख भाग है जिसमे महात्मा विदुर जी ने राजा धृतराष्ट्र को लोक-परलोक में कल्याण करने वाली बातें बताई हैं। आइये हम उनके कुछ अनमोल वचनों को जानते हैं :

1. जो अच्छे कर्म करता है और बुरे कर्मों से दूर रहता है , साथ ही जो ईश्वर में भरोसा रखता है और श्रद्धालु है , उसके ये सद्गुण पंडित होने के लक्षण हैं।
2. जो अपना आदर-सम्मान होने पर ख़ुशी से फूल नहीं उठता , और अनादर होने पर क्रोधित नहीं होता तथा गंगाजी के कुण्ड के सामान जिसका मन अशांत नहीं होता , वह ज्ञानी कहलाता है।।
3. मूढ़ चित्त वाला नीच व्यक्ति बिना बुलाये ही अंदर चला आता है , बिना पूछे ही बोलने लगता है तथा जो विश्वाश करने योग्य नहीं हैं उनपर भी विश्वाश कर लेता है।
4. जो बहुत धन , विद्या तथा ऐश्वर्यको पाकर भी इठलाता नहीं चलता , वह पंडित कहलाता है।
5. मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत से लोग उसका आनंद उठाते हैं। आनंद उठाने वाले तो बच जाते हैं ; पर पाप करने वाला दोष का भागी होता है।
6. किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण संभव है किसी एक को भी मारे या न मारे। मगर बुद्धिमान द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजा के साथ-साथ सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकती है।।
7. विदुर धृतराष्ट्र को समझाते हुए कहते हैं : राजन ! जैसे समुद्र के पार जाने के लिए नाव ही एकमात्र साधन है , उसी प्रकार स्वर्ग के लिए सत्य ही एकमात्र सीढ़ी है , कुछ और नहीं , किन्तु आप इसे नहीं समझ रहे हैं।
8. केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है , एकमात्र क्षमा ही शांति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम संतोष देने वाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है।
9. विदुर धृतराष्ट्र से कहते हैं : राजन ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं – शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देनेवाला ।
10. काम, क्रोध , और लोभ – ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे हैं , अतः इन तीनो को त्याग देना चाहिए।
11. भरतश्रेष्ठ ! पिता , माता अग्नि ,आत्मा और गुरु – मनुष्य को इन पांच अग्नियों की बड़े यत्न से सेवा करनी चाहिए।
12. ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले पुरुषों को नींद, तन्द्रा (उंघना ), डर, क्रोध ,आलस्य तथा दीर्घसूत्रता (जल्दी हो जाने वाले कामों में अधिक समय लगाने की आदत )- इन छ: दुर्गुणों को त्याग देना चाहिए।
13. मनुष्य को कभी भी सत्य ,दान , कर्मण्यता , अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्तिका अभाव ), क्षमा तथा धैर्य – इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।
14. मन में नित्य रहने वाले छः शत्रु – काम, क्रोध, लोभ , मोह , मद तथा मात्सर्य को जो वश में कर लेता है , वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्त नहीं होता, फिर उनसे उत्पन्न होने वाले अनर्थों की बात ही क्या है।
15. ईर्ष्या करने वाला , घृणा करने वाला , असंतोषी , क्रोधी , सदा संकित रहने वाला और दूसरों के भाग्य पर जीवन-निर्वाह करने वाला – ये छः सदा दुखी रहते हैं।
16. बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता – ये आठ गन पुरुष की ख्याति बढ़ा देते हैं।
17. जो धुरंधर महापुरुष आपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समयपर दुःख सहता है, उसके शत्रु तो पराजित ही हैं।
18. जो कभी उद्यंडका-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की डींग नही हांकता , क्रोध से व्याकुल होने पर भी कटुवचन नहीं बोलता, उस मनुष्य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं।
19. किसी प्रयोजन से किये गए कर्मों में पहले प्रयोजन को समझ लेना चाहिए। खूब सोच-विचार कर काम करना चाहिए, जल्दबाजी से किसी काम का आरम्भ नहीं करना चाहिए।
20. मछली बढ़िया चारे से ढकी हुई लोहे की कांटी को लोभ में पड़कर निगल जाती है, उससे होने वाले परिणाम पर विचार नहीं करती।

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